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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता

सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4361
आईएसबीएन :000000

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सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता....

Sundarkand Ki Sundarata

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पंचम संस्करण का प्राक्कथन

रामायण ट्रस्ट अयोध्या, भारतीय संस्कृति की मान्यता के अनुकूल भगवान श्रीरामभद्र के चरित्र और लीला प्रसंगों पर आधारित सत्साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने के दायित्व का निर्वहन कर रहा है। मानस के अनेकों प्रसंगों पर प्रकाशित प्रसंगों में ‘सुन्दरकाण्ड पर एक दृष्टि’ यह इस श्रखला का एक पुष्प है।
रामचरितमानस में जहाँ तक जनप्रियता का सम्बन्ध है सुन्दरकाण्ड सबसे अधिक जनप्रिय है। पाठकों ने ‘सुन्दरकांण्ड की सुन्दरता’ के प्रति सदा सदाशयता एवं भक्तिभाव दर्शाया फलस्वरूप इसका पंचम संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। सुन्दरकाण्ड में सुन्दरता के अनेक केन्द्र हैं और इसमें श्रीहनुमानजी की विलक्षण भूमिका है। गोस्वामी जी इसी कथा के लिये ‘अति सुन्दर’ शब्द का प्रयोग करते है आश्वासन देते हुए यह भी कहते हैं कि भगवान् श्रीराम तथा श्रीहनुमानजी का संवाद जिसके प्रयोग में आ जाएगा उसे भगवान श्रीराम के चरणों की भक्ति अवश्य प्राप्त होगी-

यह संवाद जासु उस आवा।
रघुपति चरण भगति सोई पावा।।

‘‘राम ते अधिक रामकर दासा’’ कहकर गोस्वामी जी जो उदघोष करते है, उसकी सर्वाधिक सार्थकता भक्ताग्रगण्य श्रीहनुमानजी के सन्दर्भ में ही घटित होती है। अनगिनत मन्दिरों के माध्यम से श्रीमद राघवेन्द्र रामभद्र की आराधना तो सारे देश में की ही जाती है किन्तु उनकी अपेक्षा भी लाड़िले पुत्र श्रीहनुमाजी के मन्दिरों की संख्या और भी अधिक मात्रा में देखी जाती है। निष्कामता का आदर्श चाहे जितना उच्च्कोटि का हो वह सभी के जीवन में घटित हो पाना सम्भव नहीं है। जनसाधारण की भक्ति तो कामना की पूर्ति से जुड़ी रहती है। आञ्जनेय भक्तों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं, यह विश्वास जनमानस में पूरी तरह प्रतिष्ठित है। उपनिषद में वह कथित वाक्य भी इसी धारणा की पुष्टि करता है जिसमें श्री हनुमानजी महाराज ने रामभक्तों से यह आग्रह किया है कि वे अपनी कामना की पूर्ति के लिये उनके प्रभु कष्ट न दें क्योंकि राम भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने का व्रत उन्होंने लिया है। अतः जनमानस में उनके प्रति जो अमित आकर्षण विद्यमान है उसे समझ लेना अत्यन्त सरल है-

‘‘तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा। राम मिलाय रामपद दीन्हा।’’

में इस विलक्षणताओं की पुष्टि होती है। मान्यता तो यही है कि जो श्रेय और प्रेम करना चाहता है उसे प्रेम का परित्याग करना होगा। किन्तु श्रेय और प्रेय दोनों की उपलब्धि आञ्जनेय की उपासना से ही सम्भव है। उन भक्ताग्रगण्य के चरित्रों के सन्दर्भ में जितना भी कहा जाय वह कम ही है।

रामकिंकर

महाराजश्री : एक परिचय


प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दन।
दिव्यराम-कथा दुग्धः, प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।

जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी


प्रथम प्रवचन


भगवान श्री सीताराम जी की कृपा से पुनः यह सुवअवर प्राप्त हुआ है कि हम लोग एकत्र होकर कुछ भगवच्चर्चा कर सकें। प्रसंग विषय में मुझसे ‘सुन्दरकाण्ड’ की महिमा पर कुछ कहने के लिये कहा गया है। इसलिए इन छः दिनों में ‘सुन्दरकाण्ड’ की महिमा पर संक्षेप में दृष्टि डालने की चेष्टा की जाएगी।

इस काण्ड के नाम पर ध्यान जाता है तो वह विचित्रता-सी प्रतीत होती है। क्योंकि श्रीरामचरित्र मानस में अन्य काण्डों का जो नामकरण किया गया है उसका अर्थ ले पाना कठिन नहीं है। प्रथम काण्ड का नाम यदि ‘बालकाण्ड’ है, तो प्रत्येक व्यक्ति सरलता से समझ लेना कि इसमें भगवान् राम बालक के रूप में अवतरित होते हैं तथा इसमें प्रभु की बाललीलाओं का वर्णन है इसलिए इसका नामकरण ‘बालकाण्ड’ किया गया है। इसी प्रकार से ‘अयोध्याकाण्य’ अयोध्या की भूमि से ही प्रारम्भ होता है। उसमें अय़ोध्या के राज्य को लेकर ही सारी समस्याएं उत्पन्न होती है, इसलिए उनके नाम को समझ लेने में कठिनाई नहीं होती। ‘अरण्यकाण्ड’ वन की लीला है।

इस काण्ड में भगवान् राम दण्डकारण्य में निवास करते हैं। ‘किष्किन्धाकाण्ड’ किष्किन्धापुरी से सम्बन्धित है। इसमें भगवान राम बालि को किष्किधा के राज्य से हटाकर उस पर सुग्रीव को स्थापित करतें है। ‘लंकाकाण्ड’ में सारा युद्ध लंका की भूमि पर लड़ा जाता है और ‘उत्तरकाण्ड’ रामायण का उपसंहार है। इसमें रामायण में उठाये गये प्रश्नों का उत्तर दिया गया है इसलिए इसे ‘उत्तरकाण्ड’ कहा गया। इस प्रकार सात में से छः काण्डों का जो नामकरण किया गया वह बड़ी सरलता से समझ में आ जाता है। लेकिन इस सुन्दरकाण्ड का नामकरण कुछ विचित्र तथा अदभुद-सा लगता है।

यह नामकरण केवल गोस्वामी जी की कृति में ही नहीं वरन् महर्षि वाल्मीकि के द्वारा भी इसी नाम का प्रयोग किया गया है वाल्मीकि ने ‘सुन्दरकाण्ड’ नामकरण अपने ग्रन्थ में किया था। यद्धपि गोस्वामी जी चाहते तो इस काण्ड का नया नामकरण भी कर सकते थे। पर यह नाम उनको इतना प्रिय लगा कि उन्होंने ‘सुन्दरकाण्ड’ के रूप में इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया किन्तु ‘सुन्दरकाण्ड’ नामकरण के पीछे क्या उद्देश्य है ? भूमिका के रूप में हम आज इस पर विचार करेंगे। इसके पश्चात ‘सुन्दरकाण्ड’ के विविध प्रसंगों में सुन्दरता की जो विलक्षण व्याख्या प्रस्तुत की गयी है सुन्दरता का जो स्वरूप प्रस्तुत किया गया है उसका आध्यात्मिक तथा साहित्यिक अर्थों में क्या तात्पर्य है उस पर भी दृष्टि डालेंगे।
रामचरिमानस में जहाँ तक जनप्रियता का सम्बन्ध है यह काण्ड सबसे लोकप्रिय है, जो लोग रामचरित मानस का समग्र पाठ नहीं करते उनमें से बहुत से ऐसे लोग भी मिलेंगे जो ‘सुन्दरकाण्ड’ का पाठ नित्य करते हैं। इस प्रकार जनमानस में श्रद्धा का सम्बन्ध है, वह पूरे ग्रन्थ में सबसे अधिक इसी काण्ड के प्रति है। जनश्रद्धा की दृष्टि से दोनों ही दृष्टियों से यह काण्ड महत्त्वपूर्ण है।

‘सुन्दरकाण्ड’ के प्रति ‘विशिष्ट’ तथा ‘जन’ दोनों में ही बड़ी श्रद्धा है। जनसाधारण की ओर जो श्रद्धाभावना है वह तो सरलता से हृदयगंम की जा सकती है। क्योंकि साधारण व्यक्ति के अनःकरण में वस्तुतः अनगिनत कामनाएँ विद्यमान रहती हैं और ‘सुन्दरकाण्ड’ में समस्त कामनाओं की पूर्ति की जाती है, इस प्रसंग में मैं यह अवश्य कहना चाहूँगा कि निष्कामता की महिमा का चाहे जितना भी प्रतिपादन क्यों न किया जाय और भले ही व्यक्ति बुद्धिपूर्वक उसे सुन भी ले पर व्यक्तिगत जीवन में अधिकांश लोगों का निष्काम न हो पाना स्वाभाविक है। क्योंकि कर्म की प्रेरणा के पीछे भी तो वस्तुतः व्यक्ति की कामना ही होती है। और इस समस्या का निदान करने की दो ही पद्धतियाँ हो सकती हैं एक में तो कामना के दोष बताकर, कामना की निन्दा करके व्यक्ति को कामना से ऊपर उठने की प्रेरणा दी जा सकती है इसलिए गीता में निष्काम कर्मयोग की महिमा का बार-बार वर्णन किया गया है। यद्यपि श्रीरामचरितानस में भी गीता की ही पद्धति का विस्तार है। उसमें भी गीता के ही समान यत्र-तत्र निष्कामता की बहुत ज्यादा निन्दा की गयी है। पर इसके पीछे जो मनोविज्ञान है वह सरलता से समझ में आ सकता है।

यदि आप किसी नन्हें बालक की शिक्षा का प्रारम्भ करें तो उसकी पद्धति बड़ी अनोखी होगी। अध्यापक यदि नन्हें बालक पर अपना ज्ञान आरोपित करने की चेष्ठा करे, शब्दों को जिन अर्थों में वह स्वयं समझता है या जानता है यदि उन्हीं अर्थों को नन्हें बालक के मस्तिष्क में बैठाने की भी चेष्ठा करें तो क्या बालक को शिक्षा दे पाएगा ?

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